आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'
आईना टूट गया अक्स की ताबानी से
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हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के
मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर