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सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं - असलम महमूद कविता - Darsaal

सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं

सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं

कुछ ऐसे लफ़्ज़ जो शायद अज़ल से प्यासे हैं

समाअतों को अभी यूँ ही मुंतज़िर रखना

पस-ए-ग़ुबार-ए-ख़मोशी हज़ार नग़्मे हैं

अँधेरे कितने ही सफ़्फ़ाक हों कि ज़ालिम हों

मगर चराग़ की नन्ही सी लौ से डरते हैं

ये किस ख़याल की लौ से लिपट रही है हवा

ये किस की याद के साए से थरथराते हैं

यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया

कभी कभी तो यूँही बे-सबब भी रोए हैं

बिखर के भी तो हमें आईना ही रहना है

हरीफ़-ए-संग कहीं टूटने से डरते हैं

सफ़र थे पाँव में 'असलम' तो मंज़िलें सर में

मगर अब अपनी ही परछाइयों से लिपटे हैं

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