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रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं - असलम महमूद कविता - Darsaal

रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं

रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं

हम कि बर्ग-ए-राएगाँ नख़्ल-ए-ज़ियाँ के हैं

शीशा-ए-उम्र-ए-रवाँ से ख़ौफ़ आता है

अक्स इस में साअत-ए-कम-मेहरबाँ के हैं

हम को क्या ला-हासिली ही इश्क़ में गर है

हम तो ख़ूगर यूँ भी कार-ए-राएगाँ के हैं

तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से

नाम क्या है क्या नसब है हम कहाँ के हैं

हम को क्या अर्ज़ ओ समा के सब ख़ज़ानों से

हम तो आशिक़ एक इस्म-ए-जावेदाँ के हैं

मेरे परतव ने तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ा

और अब रौशन मनाज़िर ख़ाक-दाँ के हैं

हम को क्या मौज-ए-फ़ना से ख़ौफ़ आएगा

मुंतज़िर हम ख़ुद ज़वाल-ए-रंग-ए-जाँ के हैं

इम्तिहाँ ये सख़्तियाँ ये गर्दिशें 'असलम'

सब इशारे एक चश्म-ए-मेहरबाँ के हैं

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