रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
ख़्वाब ज़िंदा हैं सो आँखों में जलाते हैं चराग़
आँधियाँ अब हमें महसूर किए बैठी हैं
अब तो हम सिर्फ़ ख़यालों में जलाते हैं चराग़
ठोकरें खाते हुए उम्र कटी अपनी सो हम
दूसरों के लिए राहों में जलाते हैं चराग़
तंज़ करता हुआ गुज़रा था हवा का झोंका
तब से हम तेज़ हवाओं में जलाते हैं चराग़
तिश्ना-लब आएँगे दरियाओं के ठुकराए हुए
इसी बाइस तो सराबों में जलाते हैं चराग़
ख़्वाब बिखरे हैं हमारे यहाँ हर गाम सो हम
शाम होते ही ख़राबों में जलाते हैं चराग़
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