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रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़ - असलम महमूद कविता - Darsaal

रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़

रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़

ख़्वाब ज़िंदा हैं सो आँखों में जलाते हैं चराग़

आँधियाँ अब हमें महसूर किए बैठी हैं

अब तो हम सिर्फ़ ख़यालों में जलाते हैं चराग़

ठोकरें खाते हुए उम्र कटी अपनी सो हम

दूसरों के लिए राहों में जलाते हैं चराग़

तंज़ करता हुआ गुज़रा था हवा का झोंका

तब से हम तेज़ हवाओं में जलाते हैं चराग़

तिश्ना-लब आएँगे दरियाओं के ठुकराए हुए

इसी बाइस तो सराबों में जलाते हैं चराग़

ख़्वाब बिखरे हैं हमारे यहाँ हर गाम सो हम

शाम होते ही ख़राबों में जलाते हैं चराग़

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