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न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के - असलम महमूद कविता - Darsaal

न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के

न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के

हम असीर अपनी ही ज़ात के किसी ख़्वाब के न ख़याल के

मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर

तिरे बहर ओ बर को तो रख दिया है कभी का मैं ने खँगाल के

वो हमीं थे जिन के कमाल की है ये काएनात भी मो'तरिफ़

वही हम कि आज तमाश-बीं हुए ख़ुद ही अपने ज़वाल के

जो नवाह-ए-जाँ में मुक़ीम हैं उन्हीं मौसमों का तिलिस्म है

कभी जाम उछाले नशात के कभी रंग उड़ाए मलाल के

वही सुब्ह ओ शाम के मरहले वही ख़ाल ओ आब के सिलसिले

वही क़िस्से नान-ओ-नमक के हैं वही झगड़े माल-ओ-मनाल के

तिरा आईना हूँ मैं ज़िंदगी तिरे अक्स का मैं अमीन हूँ

है मिरी शिकस्त तिरा ज़ियाँ मुझे रख बचा के सँभाल के

मिरे कार-ज़ार-ए-हयात में न कोई नजीब न कम-नसब

यहाँ नाम सिर्फ़ हुनर का है यहाँ चर्चे बस हैं कमाल के

नहीं गर्दिशों में जो वक़्त की हो अता वो साअत-ए-मावरा

न तो इब्तिदा हो न इंतिहा न हों सिलसिले मह ओ साल के

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