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मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ - असलम महमूद कविता - Darsaal

मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ

मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ

कि आप-अपने से हूँ मुख़ातब ख़ुद अपनी तहक़ीर कर रहा हूँ

कहाँ है फ़ुर्सत नशात ओ ग़म की कि ख़ुद को तस्ख़ीर कर रहा हूँ

लहू में गिर्दाब डालता हूँ नफ़स को शमशीर कर रहा हूँ

मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर

मैं ख़ाक के रंग-ए-ग़ैर-फ़ानी को अपनी तस्वीर कर रहा हूँ

मैं संग-ओ-ख़िश्त-ए-अना की बारिश में कब का मिस्मार हो चुका हूँ

अब इंकिसारी की नर्म मिट्टी से अपनी तामीर कर रहा हूँ

ये इश्क़ की है फ़ुसूँ-तराज़ी कि वहशतों की करिश्मा-साज़ी

कमंद ख़ुशबू पे डालता हूँ हवा को ज़ंजीर कर रहा हूँ

शाना-वरी के उसूल मुझ को बताएगा कोई क्या कि मैं ने

किया है मौजों का ख़ैर-मक़्दम भँवर की तौक़ीर कर रहा हूँ

तुम अपने दरियाओं पर बिठाओ हज़ार पहरे मगर मुझे क्या

मैं सारे ख़्वाबों को सब सराबों को अपनी जागीर कर रहा हूँ

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