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क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ - असलम महमूद कविता - Darsaal

क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ

क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ

ऐ उम्र-ए-रवाँ ख़ुश हूँ मैं तुझ को मयस्सर हूँ

मैं आप बहार अपनी मैं अपना ही मंज़र हूँ

ख़ुद अपने ही ख़्वाबों की ख़ुशबू से मोअत्तर हूँ

बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को

कब से तिरा तालिब हूँ कब से तिरे दर पर हूँ

जब जैसी ज़रूरत हो बन जाता हूँ वैसा ही

ख़ुद अपनी तबीअत में शीशा हूँ न पत्थर हूँ

लम्हों के तसलसुल में मर्ज़ी है मिरी शामिल

मैं वक़्त की शह-ए-रग पर रक्खा हुआ ख़ंजर हूँ

आसूदा हूँ मैं अपने वीरना-ए-हस्ती में

दुनिया तुझे मिलने के इम्कान से बाहर हूँ

जब चाहूँ सिमट कर मैं ज़र्रे में समा जाऊँ

वुसअत में तो वैसे ही सहरा हूँ समुंदर हूँ

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