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जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा - असलम महमूद कविता - Darsaal

जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा

जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा

आसमाँ जिस को समझते हो धुआँ है मेरा

ले गई बाँध के वहशत उसे सहरा की तरफ़

एक दिल ही तो था अब वो भी कहाँ है मेरा

देख ले तू भी कि ये आख़िरी मंज़र है मिरा

जिस को कहते हैं शफ़क़ रंग-ए-ज़ियाँ है मेरा

अपना ही ज़ोर-ए-तनफ़्फ़ुस न मिटा दे मुझ को

इन दिनों ज़द पे मिरी ख़ेमा-ए-जाँ है मेरा

ज़र्रा-ए-ख़ाक भी होता है कभी बार-ए-गिराँ

कभी लगता है कि ये सारा जहाँ है मेरा

अब उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ में हूँ हर आईने में

जैसे हर सम्त ओ जिहत अक्स-ए-रवाँ है मेरा

रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात

कुछ क़दम आगे ज़रा बढ़ के मकाँ है मेरा

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