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हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला - असलम महमूद कविता - Darsaal

हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला

हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला

इक रास्ता फिर सई-ए-मुकर्रर से निकाला

चलने लगी हर सम्त से जब बाद-ए-ख़ुश-आसार

इक और भँवर हम ने समुंदर से निकाला

देती रही आवाज़ पे आवाज़ ये दुनिया

सर हम ने न फिर ख़ाक की चादर से निकाला

कम पड़ गई पर्वाज़ को जब वुसअत-ए-अफ़्लाक

इक और फ़लक अपने ही शहपर से निकाला

हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़

जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला

अब कैफ़ियत ओ रंग नज़र आई जो दुनिया

मौसम नया फिर अपने ही अंदर से निकाला

आसार नज़र आए न सैराबी-ए-दिल के

थक-हार के सौदा-ए-नुमू सर से निकाला

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