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दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से - असलम महमूद कविता - Darsaal

दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से

दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से

मुँह तका करता है हर दम मिरा हैरानी से

लोग दरियाओं पे क्यूँ जान दिए देते हैं

तिश्नगी का तो तअल्लुक़ ही नहीं पानी से

अब किसी भाव नहीं मिलता ख़रीदार कोई

गिर गई है मिरी क़ीमत मिरी अर्ज़ानी से

ख़ुद पे सौ जब्र किए दिल को बहुत समझाया

रास आई कहाँ दुनिया हमें आसानी से

अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है

बुझ गईं आँखें उजालों की फ़रावानी से

अजनबी आहटें अंजान सदाएँ मुझ में

मैं तो बाज़ आया ख़राबे की निगहबानी से

आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'

आईना टूट गया अक्स की ताबानी से

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