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बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ - असलम महमूद कविता - Darsaal

बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ

बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ

लम्हा लम्हा सारा रंग-ए-आसमाँ मद्धम हुआ

थक गए हम-राह मेरे जागने वाले सभी

आख़िर-ए-शब मुझ में भी इक शोर-ए-फ़ुग़ाँ मद्धम हुआ

महव हो जाऊँगा मैं भी एक दिन हर ज़ेहन से

आइनों में जैसे अक्स-ए-रफ़्तगाँ मद्धम हुआ

रात ढलते ढलते आई सुब्ह की दहलीज़ तक

दिल ने लय तब्दील कर दी साज़-ए-जाँ मद्धम हुआ

हासिल ओ दरकार की हर फ़िक्र ज़ाइल हो गई

इक नज़र उट्ठी हर इक रंग-ए-ज़ियाँ मद्धम हुआ

अब कहाँ वो सहरा-ज़ाद ओ पासदरान-ए-जुनूँ

सहरा सहरा वहशतों का हर निशाँ मद्धम हुआ

हर्फ़-ए-दिल-दारी नहीं रस्म-ए-दिल-आज़ारी नहीं

लहजा-ए-हर-मेहरबाँ ना-मेहरबाँ मद्धम हुआ

इक चराग़ इक आइना मेरी मता-ए-बे-बहा

रह गया हर्फ़-ए-यक़ीं नक़्श-ए-गुमाँ मद्धम हुआ

हर निशान-ए-बाम-ओ-दर जब मिट गया 'असलम' तो क्या

ज़ोर-ए-तूफ़ाँ थम गया आब-ए-रवाँ मद्धम हुआ

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