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ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ - असलम महमूद कविता - Darsaal

ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ

ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ

मेरे हर ख़सारे पर मेरे ये मुख़ालिफ़ क्या शादमाँ तो मैं भी हूँ

दश्त ये अगर अपनी वुसअतों पे नाज़ाँ है मुझ को इस से क्या लेना

ज़र्रा ही सही लेकिन मेरी अपनी वुसअत है बे-कराँ तो मैं भी हूँ

दर-ब-दर भटकती है दश्त ओ शहर ओ सहरा में अपना सर पटकती है

ऐ हवा-ए-आवारा तेरी ही तरह बे-घर बे-अमाँ तो मैं भी हूँ

कूच कर गए जाने कितने क़ाफ़िले जिन का कुछ निशाँ नहीं मिलता

मैं भी हूँ कमर-बस्ता यानी रह-रव-ए-राह-ए-रफ़्तगाँ तो मैं भी हूँ

तू जो एक शोला है चोब-ए-ख़ुश्क हूँ मैं भी अपना हाल यकसाँ है

देर है भड़कने की फिर तो राख है तू भी फिर धुआँ तो मैं भी हूँ

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