रूठ कर निकला तो वो इस सम्त आया भी नहीं
रूठ कर निकला तो वो इस सम्त आया भी नहीं
और मैं ने आदतन जा कर मनाया भी नहीं
आन बैठी है मुंडेरों पर ख़िज़ाँ की ज़र्द लौ
मैं ने कोई पेड़ आँगन में उगाया भी नहीं
फिर सुलगती उँगलियाँ किस तरह रौशन हो गईं
उस ने मेरा हाथ आँखों से लगाया भी नहीं
अपनी सोचों की बुलंदी और वुसअ'त क्या करूँ
आसमाँ का साएबाँ क्या जिस का साया भी नहीं
फिर गली कूचों से मुझ को ख़ौफ़ क्यूँ आने लगा
जगमगाता शहर है 'असलम' पराया भी नहीं
(895) Peoples Rate This