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हर-चंद बे-नवा है कोरे घड़े का पानी - असलम कोलसरी कविता - Darsaal

हर-चंद बे-नवा है कोरे घड़े का पानी

हर-चंद बे-नवा है कोरे घड़े का पानी

दीवान 'मीर' का है कोरे घड़े का पानी

उपलों की आग अब तक हाथों से झाँकती है

आँखों में जागता है कोरे घड़े का पानी

जब माँगते हैं सारे अंगूर के शरारे

अपनी यही सदा है कोरे घड़े का पानी

काग़ज़ पे कैसे ठहरें मिसरे मिरी ग़ज़ल के

लफ़्ज़ों में बह रहा है कोरे घड़े का पानी

ख़ाना-ब-दोश छोरी तकती है चोरी चोरी

उस का तो आइना है कोरे घड़े का पानी

चिड़ियों सी चहचहाएँ पनघट पे जब भी सखियाँ

चुप-चाप रो दिया है कोरे घड़े का पानी

उस के लहू में शायद तासीर हो वफ़ा की

जिस ने कभी पिया है कोरे घड़े का पानी

इज़्ज़त ज़मीर मेहनत दानिश हुनर मोहब्बत

लेकिन कभी बिका है कोरे घड़े का पानी

देखूँ जो चाँदनी में लगता है मुझ को 'असलम'

पिघली हुई दुआ है कोरे घड़े का पानी

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