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हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं - असलम कोलसरी कविता - Darsaal

हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं

हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं

बिछड़ के हम ने कई रात दिन गुज़ारे हैं

हनूज़ सीने की छोटी सी क़ब्र ख़ाली है

अगरचे इस में जनाज़े कई उतारे हैं

वो कोएले से मिरा नाम लिख चुका तो उसे

सुना है देखने वालों ने फूल मारे हैं

ये किस बला की ज़बाँ आसमाँ को चाट गई

कि चाँद है न कहीं कहकशाँ न तारे हैं

मुझे भी ख़ुद से अदावत हुई तो ज़ाहिर है

कि अपने दोस्त मुझे ज़िंदगी से प्यारे हैं

नहीं कि अर्सा-ए-गिर्दाब ही ग़नीमत था

मगर यक़ीं तो दिलाओ यही किनारे हैं

ग़लत कि कोई शरीक-ए-सफ़र नहीं 'असलम'

सुलगते अक्स हैं जलते हुए इशारे हैं

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