रफ़ीक़ दोस्त मुहिब मुझ को शाक़ सब ही थे
रफ़ीक़ दोस्त मुहिब मुझ को शाक़ सब ही थे
अगरचे कहने को ये हम-मज़ाक़ सब ही थे
मैं इम्तिहान की कॉपी को सादा छोड़ आया
दिमाग़ में तो सियाक़-ओ-सबाक़ सब ही थे
तमाम रात रहा दिल में हब्स का मंज़र
खुले हुए तो दर-ए-इश्तियाक़ सब ही थे
उसी महल से थी वाबस्ता शहर की अज़्मत
शिकस्ता यूँ तो दर-ओ-बाम-ओ-ताक़ सब ही थे
हमारा गाँव फ़सादों की ज़द से दूर रहा
अगरचे लोग शरारत में ताक़ सब ही थे
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