ज़ीस्त की धूप से यूँ बच के निकलता क्यूँ है
ज़ीस्त की धूप से यूँ बच के निकलता क्यूँ है
तू जो सूरज है तो फिर साए में चलता क्यूँ है
तू जो पत्थर है तो फिर पलकों पे आँसू कैसे
तू समुंदर है तो फिर आग में जलता क्यूँ है
मेरे चेहरे में जो शाइस्ता-नज़र आता है
मेरी शिरयानों में वो शख़्स उबलता क्यूँ है
कल तुम्हीं ने उसे ये प्याला दिया था यारो
मो'तरिज़ क्यूँ हो कि वो ज़हर उगलता क्यूँ है
मेरी साँसों में सिसकने की सदा आती है
एक मरघट सा मिरे सीने में जलता क्यूँ है
जाने किन ज़र्रों से उस ख़ूँ की शनासाई है
पाँव उस मोड़ पे ही आ के फिसलता क्यूँ है
महफ़िल-ए-लग़्व से तहज़ीब ने क्या लेना है
ऐसे शोरीदा-सरों में तू सँभलता क्यूँ है
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