हम भी 'असलम' इसी गुमान में हैं
हम ने भी कोई ज़िंदगी जी थी
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शाम का रक़्स
अब रात आ रही है
खोखले बर्तन के होंट
कोशिश है गर उस की कि परेशान करेगा
हज़ार रास्ते बदले हज़ार स्वाँग रचे
मौत का इंतिज़ार सफ़ेद चाक से
कोई इशारा कोई इस्तिआ'रा क्यूँकर हो
तमाम खेल-तमाशों के दरमियान वही
तुम मिरे कमरे के अंदर झाँकने आए हो क्यूँ
वो शब-ए-ग़म जो कम अँधेरी थी
नमी उतर गई धरती में तह-ब-तह 'असलम'
इंतिज़ार