हज़ार रास्ते बदले हज़ार स्वाँग रचे
मगर है रक़्स में सर पर इक आसमान वही
Habib Jalib
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ख़ुद अपनी चाल से ना-आश्ना रहे है कोई
तुम्हारे दर्द से जागे तो उन की क़द्र खुली
कोशिश है गर उस की कि परेशान करेगा
मौत का इंतिज़ार सफ़ेद चाक से
शाम का रक़्स
वो शब-ए-ग़म जो कम अँधेरी थी
खोखले बर्तन के होंट
ख़ौफ़
नमी उतर गई धरती में तह-ब-तह 'असलम'
अब रात आ रही है
दिल की धड़कन अब रग-ए-जाँ के बहुत नज़दीक है