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शाम का रक़्स - असलम इमादी कविता - Darsaal

शाम का रक़्स

यक-ब-यक

धूप नीचे गिरी

जैसे चीनी की इक तश्तरी हाथ ख़ामोश साअत के आगे लरज़ने लगा

और कहने से होंटों के अंदर

छुपी बर्क़ आ कर चमकने लगी

आशियाँ जल गया

शाम का रक़्स मैदान-ए-हंगामा-ए-ख़ौफ़ में

गर्म होता रहा

पंखुड़ी पंखुड़ी क़तरा क़तरा उतरता रहा

मैं कि दीवार के सामने धूप का तेज़ झोंका बनूँ

आग के दरमियाँ एक पानी का क़तरा बनूँ

ख़ूँ ज़बानों के शादाब में एक आवाज़ होने का सहरा बनूँ

रूह की गर्म लहरों में इक चश्म होने का चश्मा बनूँ

तेज़ मसरूफ़ आँखों में इक हादसा का तमाशा बनूँ

और

वो

ख़्वाब की उँगलियों में फँसा नाम है

नीले पत्तों में रिसता हुआ सब्ज़ा-ए-सर्द अय्याम है

हाँ यूँ ही बैठे बैठे मिरी सारी बातें सुनो

रोने हँसने की कोई ज़रूरत नहीं

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