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नर्म आवाज़ों के बीच - असलम इमादी कविता - Darsaal

नर्म आवाज़ों के बीच

नर्म आवाज़ों से इक नीली ख़मोशी है रवाँ

यक-ब-यक उड़ गए

वो काले परिंद

जिन के सायों से शुआओं में थी इक बे-ख़्वाबी

अब वही ख़ुफ़्ता-मिज़ाजी वही बे-हर्फ़ ख़ुमार

नर्म आवाज़ों की थपकी से

ये सब होश ओ हवास

अपने इज़हार के बहते हुए दरिया की जगह

बर्फ़ की झील बने

चीख़ जो नग़्मा-ए-आज़ाद सी लहराती थी

नग़्मे में ग़र्क़ हुई

वस्ल की शब में वही शम्अ बनी

थरथराती ही रही

होंट जो तेग़ा-ए-एजाज़ पे चस्पाँ थे वो सब

इक सहाफ़ी का क़लम बन के रहे बे-मअ'नी

नर्म आवाज़ों के सैलाब में ऐ काश कभी

हादसा हो कोई कश्ती किसी साहिल से कहीं टकरा जाए

फैलती रात कभी थर्रा जाए

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