ख़ुद अपनी चाल से ना-आश्ना रहे है कोई

ख़ुद अपनी चाल से ना-आश्ना रहे है कोई

ख़िरद के शहर में यूँ लापता रहे है कोई

चला तो टूट गया फैल ही गया गोया

पहाड़ बन के कहाँ तक खड़ा रहे है कोई

न हर्फ़-ए-नफ़्य न चाक-ए-सबात-ए-दरमाँ है

हर इक फ़रेब के अंदर छुपा रहे है कोई

खड़ी हैं चारों तरफ़ अपनी बे-गुनह साँसें

सदा-ए-दर्द के अंदर घिरा रहे है कोई

गुरेज़ आँखें लिए जा रहे हो कमरे में

जुनूँ कि रूह से कब तक बचा रहे है कोई

क़दम है जज़्ब कि सहरा है रहगुज़र, क़तरे

हुरूफ़-ए-दिल की तरह डालता रहे है कोई

जो ख़ुशबुओं के थपेड़े बदन से टकराएँ

तो 'असलम' ऐसे में कब तक खड़ा रहे है कोई

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