सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं
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बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर
न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
ज़हर
हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर