कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी
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हर सू है तारीकी छाई तुम भी चुप और हम भी चुप
किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
अजीब शख़्स है मुझ को तो वो दिवाना लगे
बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
वक़्त का कुछ रुका सा धारा है
अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
आहट
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है