हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं
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आहट
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
हर सू है तारीकी छाई तुम भी चुप और हम भी चुप
बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
कतबा
धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर
मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा