मेरा वजूद
दीवार-ए-संग-ओ-आहन है
जिसे
रात भर
याजूज और माजूज
अपनी
नोकीली ज़बान से
चाटते रहते हैं
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धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
कतबा
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर
कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
वक़्त का कुछ रुका सा धारा है
किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा