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वक़्त का कुछ रुका सा धारा है - असलम आज़ाद कविता - Darsaal

वक़्त का कुछ रुका सा धारा है

वक़्त का कुछ रुका सा धारा है

तुम ने शायद मुझे पुकारा है

तुम न आओगे ये भी है मालूम

चंद यादों का बस सहारा है

उन की यादों के चंद फूलों से

चमन-ए-ताज़ा दिल हमारा है

आज हम ने तो दे के जाँ अपनी

ज़िंदगी तेरा क़र्ज़ उतारा है

उन की नज़रों ने ज़ख़्म-ए-दिल को मिरे

मुंदमिल कर के फिर उभारा है

लोग कहते हैं उस को भी शबनम

सर-ए-मिज़्गाँ जो इक सितारा है

फिर भी हासिल सुकूँ नहीं 'असलम'

उम्र भर हसरतों को मारा है

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