उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
इस समुंदर में कोई तैरने वाला ही नहीं
सालहा-साल से वीरान हैं दिल की गलियाँ
एक मुद्दत से कोई इस तरफ़ आया ही नहीं
आँख के ग़ार में हैं सैकड़ों सड़ती लाशें
झाँक कर उन में किसी ने कभी देखा ही नहीं
दूर तक फैल गई टूटते लम्हों की ख़लीज
वक़्त का साया मिरे सर से उतरता ही नहीं
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं
जलते आकाश की ढलवान पे सूरज का वजूद
इक पिघलता हुआ लावा है कि बुझता ही नहीं
(706) Peoples Rate This