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कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं - असलम आज़ाद कविता - Darsaal

कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं

कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं

तिरे ख़याल की ख़ुश्बू भी आस-पास नहीं

हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा

लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं

समुंदरों का मैं नमकीन पानी कैसे पियूँ

पियासा हूँ मगर इतनी ज़ियादा प्यास नहीं

सजा के बोतलें टेबल पे मुंतज़िर हूँ मगर

क़रीब ओ दूर निगाहों के वो गिलास नहीं

तुम्हारे कपड़े कहीं गर्द में न अट जाएँ

ये ख़ुश्क पत्तों का बिस्तर है नर्म घास नहीं

ये और बात कि मुझ से बिछड़ के ख़ुश है मगर

वो कैसे कह दे कि मैं इन दिनों उदास नहीं

बुझी बुझी सही ये धूप कम नहीं 'असलम'

अब इस के ब'अद किसी रौशनी की आस नहीं

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