किसे कहें कि रिफ़ाक़त का दाग़ है दिल पर
बिछड़ने वाला तो खुल कर कभी मिला ही न था
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ऐन-मुमकिन है किसी तर्ज़-ए-अदा में आए
लरज़ लरज़ के दिल-ए-ना-तवाँ ठहर ही न जाए
फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या है
हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए
जिसे दरपेश जुदाई हो उसे क्या मालूम
अब और चलने का इस दिल में हौसला ही न था
दर्स-ए-आदाब-ए-जुनूँ याद दिलाने वाले
मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
हम ने हर ख़्वाब को ताबीर अता की 'असलम'
ऐ ज़मिस्ताँ की हवा तेज़ न चल
हर शख़्स इस हुजूम में तन्हा दिखाई दे