हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए
कि साहिलों पे सितारा कोई रहा ही न था
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कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता
किसे कहें कि रिफ़ाक़त का दाग़ है दिल पर
मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
ख़फ़ा न हो कि तिरा हुस्न ही कुछ ऐसा था
हम ने हर ख़्वाब को ताबीर अता की 'असलम'
बुझी है आतिश-ए-रंग-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता
वो नख़्ल जो बार-वर हुए हैं
गुबार-ए-एहसास-ए-पेश-ओ-पस की अगर ये बारीक तह हटाएँ
दीवार-ए-ख़स्तगी हूँ मुझे हाथ मत लगा
जिसे दरपेश जुदाई हो उसे क्या मालूम
ऐन-मुमकिन है किसी तर्ज़-ए-अदा में आए