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कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता - असलम अंसारी कविता - Darsaal

कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता

कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता

चाँद चमका है तो एहसास भी चमका होता

आईना-ख़ाना-ए-आलम में खड़ा सोचता हूँ

मैं न होता तो यहाँ कौन सा चेहरा होता

ख़ुद भी गुम हो गए हम अपनी सदाओं की तरह

दश्त-ए-फ़ुर्क़त में तुझे यूँ न पुकारा होता

हुस्न-ए-इज़हार ने रानाई अता की ग़म को

गुल अगर रंग न होता तो शरारा होता

हम भी एहसास की तस्वीर बना सकते थे

काश हम पे कभी इज़हार का दर वा होता

फ़ुर्सत-ए-शौक़ न दी कर्ब-ए-वफ़ा ने रोना

कोई एजाज़ तो हम ने भी दिखाया होता

हम को पहचान कि ऐ बज़म-ए-चमन-ज़ार-ए-वजूद

हम न होते तो तुझे किस ने सँवारा होता

एक सूरत से हुआ नक़्श-ए-दो-आलम को फ़रोग़

आईना टूट न जाता तो तमाशा होता

हम ने हर ख़्वाब को ताबीर अता की 'असलम'

वर्ना मुमकिन था कि हर नक़्श अधूरा होता

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