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जब हमें इज़्न तमाशा होगा - असलम अंसारी कविता - Darsaal

जब हमें इज़्न तमाशा होगा

जब हमें इज़्न तमाशा होगा

तू कहाँ अंजुमन-आरा होगा

हम न पहुँचे सर-ए-मंज़िल तो क्या

हम-सफ़र कोई तो पहुँचा होगा

उड़ती होगी कहीं ख़ुशबू-ए-ख़याल

गुल-ए-मा'नी कहीं खिलता होगा

हर गुल-ओ-बर्ग है इक नक़्श-ए-क़दम

कौन इस राह से गुज़रा होगा

लब-ए-तस्वीर पे गोया है सुख़न

कोई सुन ले तो तमाशा होगा

अब भी गुल-पोश दरीचे के क़रीब

तू किसी सोच में डूबा होगा

आज की शाम भी वो सर्व-ए-जमील

तेरे आँगन में लहकता होगा

तू ने जब हाथ छुड़ाया था वो पल

तुझ को भी याद तो आता होगा

दिल ये कहता है तुझी से मिलिए

मैं ये कहता हूँ कि फिर क्या होगा

दश्त-ए-फ़ुर्क़त में खड़ा सोचता हूँ

तू कहाँ अंजुमन-आरा होगा

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