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बुझी है आतिश-ए-रंग-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता - असलम अंसारी कविता - Darsaal

बुझी है आतिश-ए-रंग-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता

बुझी है आतिश-ए-रंग-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता

गिरे हैं शोला-ए-गुल से शरार आहिस्ता आहिस्ता

वो इक क़तरा कि बर्ग-ए-दिल पे शबनम सा लरज़ता था

हुआ है बहर-ए-ना-पैदा-कनार आहिस्ता आहिस्ता

कभी शोर-ए-क़यामत गोश-ए-इंसाँ तक भी पहुँचेगा

कोई सय्यारा बदलेगा मदार आहिस्ता आहिस्ता

उड़ा है रफ़्ता रफ़्ता रंग तस्वीर-ए-मोहब्बत का

हुई है रस्म-ए-उल्फ़त बे-विक़ार आहिस्ता आहिस्ता

सराब-ए-आरज़ू में फिर कोई मंज़र भी चमकेगा

उठेगी दश्त से मौज-ए-ग़ुबार आहिस्ता आहिस्ता

बहुत दिन तक सलासिल की सदा आई है ज़िंदाँ से

मिला है बे-क़रारों को क़रार आहिस्ता आहिस्ता

वो सब अर्बाब-ए-जज़्ब-ओ-शौक़ जिन पर नाज़ था हम को

हुए हैं होश-मंदी के शिकार आहिस्ता आहिस्ता

कभी मलहूज़ हम को भी सुख़न में रब्त-ए-मअनी था

हुआ है ज़हर-ए-ग़म आशुफ़्ता-कार आहिस्ता आहिस्ता

कहीं यारो तुम्हें फिर गहरी यासिय्यत न छू जाए

रहो राह-ए-तलब में महव-ए-कार आहिस्ता आहिस्ता

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