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अपनी सदा की गूँज ही तुझ को डरा न दे - असलम अंसारी कविता - Darsaal

अपनी सदा की गूँज ही तुझ को डरा न दे

अपनी सदा की गूँज ही तुझ को डरा न दे

ऐ दिल तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-शब में सदा न दे

दीवार-ए-ख़स्तगी हूँ मुझे हाथ मत लगा

मैं गिर पड़ूँगा देख मुझे आसरा न दे

गुल कर न दे चराग़-ए-वफ़ा हिज्र की हवा

तूल-ए-शब-ए-अलम मुझे पत्थर बना न दे

हम सब असीर-ए-दश्त-ए-हुवैदा हैं दोस्तो

हम में कोई किसी को किसी का पता न दे

सब महव-ए-नक़्श-ए-पर्दा-ए-रंगीं तो हैं मगर

कोई सितम-ज़रीफ़ ये पर्दा हटा न दे

इक ज़िंदगी-गज़ीदा से ये दुश्मनी न कर

ऐ दोस्त मुझ को उम्र-ए-अबद की दुआ न दे

डरता हूँ आइना हूँ कहीं टूट ही न जाऊँ

इक लौ सी हूँ चराग़ की कोई बुझा न दे

हाँ मुझ पे फ़ैज़-ए-'मीर'-ओ-'फ़िराक़'-ओ-'नदीम' है

लेकिन तू हम-सुख़न मुझे इतनी हवा न दे

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