शाम खुलती है तेरे आने से
लब पे तेरा सवाल रखती है
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पौ फटते ही ट्रेन की सीटी जब कानों में गूँजती है
नज़्म
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ
तेरी यादें बहाल रखती है
डूबने की न तैरने की ख़बर
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
अपनी हालत पे आँसू बहाने लगे
ज़ख़्म खा के भी मुस्कुराते हैं
अपनी आँखें जो बंद कर देखूँ