शहज़ादी के कानों में जो बात कही थी इक तू ने
ब'अद तिरे वो बात तिरे ही अफ़्सानों में गूँजती है
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अपनी हालत पे आँसू बहाने लगे
अपनी आँखें जो बंद कर देखूँ
नज़्म
मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
किस के मातम में रो रही है रात
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
तेरी यादें बहाल रखती है
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
सदियों को बेहाल किया था
ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ