मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
जहाँ से मैं ये उदासी उधार लेती हूँ
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आइने पर तो है भरोसा मुझे
डूबने की न तैरने की ख़बर
ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ
सदियों को बेहाल किया था
पौ फटते ही ट्रेन की सीटी जब कानों में गूँजती है
शाम खुलती है तेरे आने से
ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था