बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
सब्ज़ रंग-ए-मलाल रखती है
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ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
शाम खुलती है तेरे आने से
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
ज़ख़्म खा के भी मुस्कुराते हैं
सदियों को बेहाल किया था
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
अपनी हालत पे आँसू बहाने लगे
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ