नज़्म
रात के फैलते सन्नाटों में
दिल के ज़िंदान में इक याद का दीपक सा जला
फड़फड़ाती है बहुत लौ उस की
वादी-ए-हिज्र से आती हैं सदाएँ जितनी
उस के सीने में बहुत गूँजती हैं
इस्म-ए-हिजरत से अजब सब्ज़ हुआ है ज़िंदाँ
इक सकूँ है कि जो वहशत में भी आसूदा है
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