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ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ - आसिमा ताहिर कविता - Darsaal

ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ

ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ

आज ख़ुद को भुलाए बैठी हूँ

जाने वालों का इंतिज़ार नहीं

अपने रस्ते में आए बैठी हूँ

उस की आँखों में है तिलिस्म कोई

अपना चेहरा लुटाए बैठी हूँ

चाँद को तैश आ रहा है कि मैं

क्यूँ नज़र को मिलाए बैठी हूँ

फूल खिलते हैं मुझ में शेरों के

एक मिस्रा समाए बैठी हूँ

राहगुज़र एहतिराम कर मेरा

मैं किसी के बुलाए बैठी हूँ

हर ख़ुशी ज़र्द हो गई जैसे

इक अज़िय्यत भुलाए बैठी हूँ

आइने पर तो है भरोसा मुझे

उस से क्यूँ मुँह छुपाए बैठी हूँ

चुभ रही है अँधेरी रात मुझे

हर सितारा बुझाए बैठी हूँ

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