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तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना

तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना

दिए जलाए न रखना सिंगार मत करना

मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं

मैं आदमी हूँ मिरा ए'तिबार मत करना

किरन से भी है ज़ियादा ज़रा मिरी रफ़्तार

नहीं है आँख से मुमकिन शिकार मत करना

तुम्हें ख़बर है कि ताक़त मिरा वसीला है

तुम अपने आप को बे-इख़्तियार मत करना

तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम हैं

मिरी वफ़ा पे कभी इंहिसार मत करना

तुम्हें बताऊँ ये दुनिया ग़रज़ की दुनिया है

ख़ुलूस दिल में अगर है तो प्यार मत करना

मिलेंगे राह में 'आसिम' को हम-सफ़र कई और

वो आ रहा है मगर इंतिज़ार मत करना

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