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तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा

तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा

मुख़्तलिफ़ रस्तों पे चलने का हुनर आ जाएगा

मैं ख़ला में देखता रहता हूँ इस उम्मीद पर

एक दिन मुझ को अचानक तू नज़र आ जाएगा

तेज़ इतना ही अगर चलना है तन्हा जाओ तुम

बात पूरी भी न होगी और घर आ जाएगा

ये मकाँ गिरता हुआ जब छोड़ जाएँगे मकीं

इक परिंदा बैठने दीवार पर आ जाएगा

कोई मेरी मुख़बिरी करता रहेगा और फिर

जुर्म की तफ़तीश करने बे-ख़बर आ जाएगा

हो गया मिट्टी अगर मेरा पसीना सूख कर

देखना मेरे दरख़्तों पर समर आ जाएगा

बंदगी में इश्क़ सी दीवानगी पैदा करो

एक दम 'आसिम' दुआओं में असर आ जाएगा

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