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मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ

मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ

आँखों में इक सराब है दरिया बना हुआ

इक और शख़्स भी है मिरे नाम का यहाँ

इक और शख़्स है मिरे जैसा बना हुआ

समझा रहे हो मुझ को मिरा इर्तिक़ा मगर

देखा नहीं है आदमी पहला बना हुआ

ऐ इंहिमाक-ए-चश्म ज़रा ये मुझे बता

चारों तरफ़ ज़मीन पे है क्या बना हुआ

करने लगा है तंज़ मिरे निस्फ़ अक्स पर

मुझ में जो एक शख़्स है पूरा बना हुआ

पहले किसी की आँख ने पागल किया मुझे

अब हूँ किसी नज़र का तमाशा बना हुआ

खुलती नहीं हैं तुझ पे ही उर्यानियाँ तिरी

'आसिम' तिरा लिबास है अच्छा बना हुआ

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