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माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते

माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते

हम लोग मगर खुल के बग़ावत नहीं करते

करते हैं मुसलसल मिरे ईमान पे तन्क़ीद

ख़ुद अपने अक़ीदों की वज़ाहत नहीं करते

कुछ वो भी तबीअ'त का सुखी ऐसा नहीं है

कुछ हम भी मोहब्बत में क़नाअ'त नहीं करते

जो ज़ख़्म दिए आप ने महफ़ूज़ हैं अब तक

आदत है अमानत में ख़यानत नहीं करते

क्यूँ इन को मिला मंसब-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-गीती

ये लोग तो मिट्टी से मोहब्बत नहीं करते

कुछ ऐसी बग़ावत है तबीअ'त में हमारी

जिस बात की होती है इजाज़त नहीं करते

तंज़ीम का ये हाल है इस शहर में 'आसिम'

बे-साख़्ता बच्चे भी शरारत नहीं करते

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