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गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है

गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है

मिरी बक़ा का सबब तो मिरी फ़ना में है

नहीं है शहर में चेहरा कोई तर ओ ताज़ा

अजीब तरह की आलूदगी हवा में है

हर एक जिस्म किसी ज़ाविए से उर्यां है

है एक चाक जो मौजूद हर क़बा में है

ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ

ये बेवफ़ाई भी शामिल मिरी वफ़ा में है

मिरे गुनाह में पहलू है एक नेकी का

जज़ा का एक हवाला मिरी सज़ा में है

अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे

ये किस तरह की ख़मोशी हर इक सदा में है

सबब है एक ही मेरी हर इक तमन्ना का

बस एक नाम है 'आसिम' कि हर दुआ में है

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