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एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते - आसिम वास्ती कविता - Darsaal

एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते

एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते

उम्र लग जाएगी इस बूँद को दरिया करते

इश्क़ में जाँ से गुज़रना भी कहाँ है मुश्किल

जान देनी हो तो आशिक़ नहीं सोचा करते

एक तू ही नज़र आता है जिधर देखता हूँ

और आँखें नहीं थकती हैं तमाशा करते

ज़िंदगी ने हमें फ़ुर्सत ही नहीं दी वर्ना

सामने तुझ को बिठा बैठ के देखा करते

हम सज़ा-वार-ए-तमामशा थे हमें देखना था

अपने ही क़त्ल का मंज़र था मगर क्या करते

अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से

शायद ऐसे नहीं होता अगर ऐसा करते

जो भी हम देखते हैं साफ़ नज़र आ जाता

चश्म-ए-हैरत को अगर दीदा-ए-बीना करते

शहर के लोग अब इल्ज़ाम तुम्हें देते हैं

ख़ुद बुरे बन गए 'आसिम' उसे अच्छा करते

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