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सबा कहियो ज़बानी मेरी टुक उस सर्व-क़ामत को - आसिफ़ुद्दौला कविता - Darsaal

सबा कहियो ज़बानी मेरी टुक उस सर्व-क़ामत को

सबा कहियो ज़बानी मेरी टुक उस सर्व-क़ामत को

कि जब से दिल लिया आए न फिर साहिब-सलामत को

मिरे रोने को सुन कर यूँ लगा झुँझला के वो कहने

मियाँ ये जान खाना है उठा दो इस मलामत को

जो मिलना है तो आ जाओ गले से लग के सो रहिए

नहीं तो काम क्या आओगे ऐ साहब क़यामत को

उठाए सौ तरह के ज़ुल्म और जौर-ओ-जफ़ा तेरे

कहा शाबाश भी तू ने न मेरी इस्तक़ामत को

हुआ मैं ख़ाक ऐ 'आसिफ़' न पहुँचा इस के दामाँ तक

लिए जाऊँगा साथ अपने अदम तक इस नदामत को

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