सबा कहियो ज़बानी मेरी टुक उस सर्व-क़ामत को
सबा कहियो ज़बानी मेरी टुक उस सर्व-क़ामत को
कि जब से दिल लिया आए न फिर साहिब-सलामत को
मिरे रोने को सुन कर यूँ लगा झुँझला के वो कहने
मियाँ ये जान खाना है उठा दो इस मलामत को
जो मिलना है तो आ जाओ गले से लग के सो रहिए
नहीं तो काम क्या आओगे ऐ साहब क़यामत को
उठाए सौ तरह के ज़ुल्म और जौर-ओ-जफ़ा तेरे
कहा शाबाश भी तू ने न मेरी इस्तक़ामत को
हुआ मैं ख़ाक ऐ 'आसिफ़' न पहुँचा इस के दामाँ तक
लिए जाऊँगा साथ अपने अदम तक इस नदामत को
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