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किस क़दर दर्द के शब करता था मज़कूर तिरा - आसिफ़ुद्दौला कविता - Darsaal

किस क़दर दर्द के शब करता था मज़कूर तिरा

किस क़दर दर्द के शब करता था मज़कूर तिरा

वो ही बीमार तिरा ख़स्ता-ओ-रंजूर तिरा

बे-ख़बर अब भी शिताबी से पहुँच डरता हूँ

कुश्ता-ए-हिज्र न हो ये कहीं महजूर तिरा

ये न आने के बहाने हैं सभी वर्ना मियाँ

इतना तो घर से मिरे कुछ नहीं घर दूर तिरा

नीची नज़रों से तिरी डरता हूँ क्या कुछ न करें

देख लेना तो यहाँ सब को है मंज़ूर तिरा

आँखें इन रोज़ों में सच कहियो लड़ाएँ किस से

बे-तरह झमके है कुछ दीदा-ए-मख़मूर तिरा

जिस की तू यारी करे यारी-ए-दो-जग वो करे

नासिर-ए-हर-दो-जहाँ होवे है मंसूर तिरा

शश-जिहत तुझ सती मा'मूर है अल्लाह अल्लाह

झमके है चारों तरफ़ नाम-ए-ख़ुदा नूर तिरा

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