जिस दम तिरे कूचे से हम आन निकलते हैं
जिस दम तिरे कूचे से हम आन निकलते हैं
हर गाम पे दहशत से बे-जान निकलते हैं
ये आन है ऐ यारो या नोक है बर्छी की
या सीने से तीरों के पैकान निकलते हैं
रिंदों ने कहीं उन की ख़िदमत मैं बे-अदबी की
जो शैख़ जी मज्लिस से सरसान निकलते हैं
ये तिफ़्ल-ए-सरिश्क अपने ऐसा हो मियाँ बहकें
बे-तरह ये अब घर से नादान निकलते हैं
ये ज़िद है जिन्हें यारो आ जाएँ जो मशहद पर
तो थाम के हाथों से दामान निकलते हैं
किस तरह ग़ुबार उन तक पहुँचेगा भला अपना
'आसिफ़' जो कभी घर से ख़ूबान निकलते हैं
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